संजीव मेहता वौइस् ऑफ इंडिया।इस बार हो रहे विधानसभा चुनावों में आखिर कौन से मुद्दे उठाए जा रहे हैं? किस दल की ओर से क्या वादा किया जा रहा है? उम्मीदवारों के एलान के बाद हो रही बगावत का किसे कितना नुकसान हो सकता है? इस बार खबरों के खिलाड़ी में इन सभी सवालों पर बात हुई। वरिष्ठ पत्रकार रामकृपाल सिंह, राहुल महाजन, हर्षवर्धन त्रिपाठी, विनोद अग्निहोत्री, प्रेम कुमार और समीर चौगांवकर चर्चा के लिए मौजूद रहे। आइए जानते हैं किसने क्या कहा…

राजनीतिक दलों में दिख रही गुटबाजी का क्या असर होगा?
रामकृपाल सिंह: इस बार का चुनाव कई मायनों में अभूतपूर्व है। कोरोना के दौर के बाद बहुत सी चीजें बदली हैं। जिस तरह से कर्नाटक के चुनाव में अल्पसंख्यक कांग्रेस के साथ लौटे हैं, वह क्षेत्रीय दलों के लिए चिंता का विषय है। जिस तरह से मुफ्त योजनाओं का चलन है, उसका असर भी देखना होगा। इस चुनाव में सामाजिक अधिकारिता ज्यादा प्रभावी होगी या मुफ्त योजनाएं, यह भी देखना होगा। इस चुनाव से इसका पता चलेगा। अभी हर घर में इस्राइल और हमास की चर्चा हो रही है। अगर इस चुनाव में तेलंगाना और मध्य प्रदेश में कांग्रेस जीत जाती है तो 2024 का चुनाव कांग्रेस-भाजपा के बीच होगा। तब किसी गठबंधन की भूमिका नहीं रह जाएगी। 

राहुल महाजन: इस तरह की गुटबाजी हर चुनाव में होती है। जहां तक इन चुनावों की बात है तो दो तीन चीजें बेहद अहम हैं। जैसे मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में आदिवासी मतदाता बड़ा फैक्टर हैं। दूसरा यह चुनाव बेहद जातिगत आधार पर हो रहे हैं। खासतौर पर मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में। छत्तीसगढ़ में भाजपा के हिंदुत्व के एजेंडे को वहां के मुख्यमंत्री ने कई योजनाओं से काउंटर किया है। स्वास्थ्य, पानी जैसे मुद्दों का नहीं उभर पाना दुर्भाग्यपूर्ण है। 

प्रेम कुमार: ये बोल दिया जाता है कि दोनों ओर गुटबाजी है। इससे दोनों को थोड़ा-बहुत नुकसान होगा। कुल मिलाकर असर शून्य हो जाएगा, लेकिन बगावत में जो पार्टी बेहतर मैनेजमेंट करती है, उसे फायदा होता है। इस बगावत को मैनेज करने के लिए स्थानीय नेता ज्यादा प्रभावी होते हैं। 

क्या वाकई जमीन पर मुद्दे प्रभावी होंगे?
हर्षवर्धन त्रिपाठी: 
सरकार ने चार-पांच साल में जो काम किया है, वह भी चुनाव में बड़ी भूमिका निभाता है। हालांकि, जाति और मुफ्त योजनाएं तेजी से असर दिखाती हैं, फिर भी सरकार के काम का असर जरूर पड़ता है। ये सभी चीजें मिलकर राज्यों में चुनाव की दिशा को तय करती हैं। चाहे कांग्रेस हो या भाजपा, सभी में गुटबाजी होती है। हर दल में मुख्यमंत्री पद के आकांक्षी होते हैं, लेकिन जनता के मन में मुद्दे जरूर होते हैं। अशोक गहलोत सरकार पर सबसे बड़ा संकट विश्वसनीयता का है। खुद उनकी पार्टी के सचिन पायलट ने उन पर आरोप लगाए हैं। 

ईडी के छापों का राजस्थान में क्या असर पड़ेगा?
प्रेम कुमार: 
राजस्थान में चुनाव के दौरान ईडी की कार्रवाई होती है। राज्य में सरकार के खिलाफ भाजपा को जिस तरह से उतरना चाहिए, वो उस तरह नहीं दिखाई देती है। दूसरी ओर कांग्रेस का ईडी के सामने जमकर प्रदर्शन होता है। गुटबाजी में बंटी भाजपा शायद इसका फायदा नहीं उठा पाई। वहीं, कांग्रेस को इस मुद्दे ने एकजुट कर दिया। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि ईडी की कार्रवाई ने कांग्रेस को फायदा पहुंचाने का काम किया है। ईडी राजस्थान में दखल देती है। इसका राजनीतिक मतलब यह है कि इससे कांग्रेस में लड़ाई तेज हो जाएगी। अगर सचिन पायलट इस मुद्दे पर चुप रहते हैं तो उससे भाजपा को फायदा मिलता, लेकिन पायलट ने यह फायदा नहीं लेने दिया। ईडी की कार्रवाई में दोषसिद्धि की दर भी सवालों के घेरे में रही है। 

हर्षवर्धन त्रिपाठी: मैं मानता हूं कि ईडी और किसी भी एजेंसी के छापे का चुनाव पर कोई असर नहीं पड़ता। जितने नेता हैं, उन सब के खिलाफ भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप हैं। हमने बंगाल में यह भी देखा कि किस तरह से एक मंत्री का पैसा रखने के लिए घर किराये पर लिया गया। यह सवाल जरूर होगा कि भाजपा में जो रहता है, उस पर कार्रवाई क्यों नहीं होती है। इसके साथ ही यह भी स्पष्ट है कि जिन पर कार्रवाई हो रही हो वो भी पाक-साफ नहीं हैं।

विनोद अग्निहोत्री: अगर एजेंसियों के एक्शन को देखें तो देश की गैर भाजपा सरकारें भ्रष्ट हैं और भाजपा सरकारें पूरी तरह पाक साफ हैं। एजेंसियों के काम करने का तरीका होता है, जो केंद्र की सरकार पर निर्भर करता है। 2018 में भी कमलनाथ और उनके सहयोगियों पर चुनाव के वक्त छापे पड़े थे। इसके बाद भी कमलनाथ की सरकार आई। 2020 में दिल्ली में भी आप के नेताओं के खिलाफ कार्रवाई हुई। उसके बाद राज्य में आप की सरकार आई। 2021 में ममता और उनके सहयोगियों के खिलाफ कार्रवाई हुई। चुनाव के बाद बंगाल में ममता की सरकार आई। इसका मतलब यह नहीं है कि कार्रवाई होनी चाहिए। एजेंसियों की भी जिम्मेदारी होनी चाहिए। देश में एजेंसियों की जिम्मेदारी की कोई व्यवस्था नहीं है, इसलिए थाने के दरोगा से केंद्रीय एजेंसियों तक यह मनमानी होती है। उत्तर प्रदेश में एक अनाज घोटाला हुआ, लेकिन उस पर कोई कार्रवाई नहीं हुई। 

जहां तक मुद्दों की बात है, तो किसी एक मुद्दे पर चुनाव नहीं होता। चुनाव में व्यापक मुद्दों का असर होता है। बगावत का भी असर होता है। अगर जमीन से जुड़े मजबूत नेताओं की अनदेखी होती है तो उसका नुकसान उस पार्टी को होता है। जहां तक बगावत की बात है तो बगावत का असर पड़ता है। इसका बड़ा उदाहरण हिमाचल प्रदेश है। छोटे राज्यों में बगावत का असर ज्यादा पड़ता है। वहीं, बड़े राज्यों में बगावत का असर कम पड़ता है। हर पार्टी में जिलों के नेताओं की वफादारी प्रदेश के नेताओं के प्रति होती है। इसलिए बगावत कराने और उसे साधने दोनों में स्थानीय नेताओं की बड़ी भूमिका होती है।